Breaking

यह ब्लॉग खोजें

Srimad Bhagwat Geeta लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Srimad Bhagwat Geeta लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 10 फ़रवरी 2019

फ़रवरी 10, 2019

Srimad Bhagwat Geeta

Srimad Bhagwat Geeta

Srimad Bhagwat Geeta
Srimad Bhagwat Geeta

विराट रूप अध्याय -११ 
१-मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम्‌।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम।
२-भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वतः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्‌।
३-एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम।
४-मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्‌।
५-पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।
६-पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत।
७-इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्‌।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि।
८-न तु मां शक्यसे द्रष्टमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्‌।
९-एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्‌।
१०-अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्‌।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्‌।
११-दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्‌।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्‌।
१२-दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः।
१३-तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा।
१४-ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत।
१५-पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्‍घान्‌।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्‌।
१६-अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रंपश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्‌।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिंपश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप।
१७-किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्‌।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्‌।
१८-त्वमक्षरं परमं वेदितव्यंत्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्‌।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे।

  अर्जुन ने कहा, मुझ पर अनुग्रह करने केलिए जो भी  परम गोपनीय अध्यात्म विषयक वचन और उपदेश आपने कहा, उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गया है।
  क्योंकि हे कमलनेत्र! आपसे तो भूतों की उत्पत्ति और प्रलय विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपकी अविनाशी महिमा भी सुनी है।
  हे परमेश्वर! अपने आप को आप जैसा कहते हैं, यह ठीक ऐसा ही है, परन्तु हे पुरुषोत्तम! आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज से युक्त ऐश्वर्य-रूप को मैं प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ।
  मेरे द्वारा अगर आपका वह रूप देखा जाना शक्य है- ऐसा आप मानते हैं, तो हे योगेश्वर! उस अविनाशी स्वरूप का मुझको दर्शन कराइए।
  श्री भगवान बोले- हे पार्थ! अब तूम मेरे सैकड़ों-हजारों नाना प्रकार के और नाना वर्ण तथा नाना आकृतिवाले अलौकिक रूपों को देखो।
  हे भरतवंशी अर्जुन! तु मुझमें आदित्यों को अर्थात अदिति के द्वादश पुत्रों को, आठ वसुओं को, एकादश रुद्रों को, दोनों अश्विनीकुमारों को और उनचास मरुद्गणों को देख तथा और भी बहुत से पहले न देखे हुए आश्चर्यमय रूपों को देख।
  हे अर्जुन! अब इस मेरे शरीर में एक जगह स्थित चराचर सहित सम्पूर्ण जगत को देख तथा और भी जो कुछ देखना चाहता हो सो देख।
  परन्तु मुझको तू अपने इन प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने में निःसंदेह समर्थ नहीं है, इसी से मैं तुझे दिव्य अर्थात अलौकिक चक्षु देता हूँ, इससे तू मेरी ईश्वरीय योग शक्ति को देख।
  संजय बोले- हे राजन्‌! सब पापों के नाश करने वाले भगवान और महायोगेश्वर ने इस प्रकार कहकर उसके पश्चात अर्जुन को परम ऐश्वर्ययुक्त दिव्यस्वरूप दिखलाया।
  अनेक नेत्रों और अनेक मुख से युक्त, अनेकों अद्भुत दर्शनों वाले, बहुत से दिव्य भूषणों से युक्त और बहुत से दिव्य शस्त्रों को धारण किए हुए और दिव्य गंध का सारे शरीर में लेप किए हुए, सब प्रकार के आश्चर्यों से युक्त, सीमारहित और सब ओर मुख किए हुए विराट्स्वरूप परमदेव परमेश्वर को अर्जुन ने देखा।
  आकाश में जैसे हजार सूर्यों के एक साथ उदय होने से उत्पन्न जो प्रकाश हो, वह भी उस विश्व रूप परमात्मा के प्रकाश के सदृश कदाचित्‌ ही हो।
  अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार से विभक्त अर्थात पृथक-पृथक सम्पूर्ण जगत को देवों के देव श्रीकृष्ण भगवान के उस शरीर में एक जगह स्थित देखा।
  उसके अनंतर आश्चर्य से चकित और पुलकित शरीर अर्जुन प्रकाशमय विश्वरूप परमात्मा को श्रद्धा-भक्ति सहित सिर से प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोले।
  अर्जुन बोले- हे देव! आपके शरीर में मैं सम्पूर्ण देवों को तथा अनेक भूतों के समुदायों को, कमल के आसन पर विराजित ब्रह्मा को, महादेव को और सम्पूर्ण ऋषियों को तथा दिव्य सर्पों को देखता हूँ।
  हे सम्पूर्ण विश्व के स्वामि! आपको अनेक भुजा, पेट, मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनन्त रूपों वाला देखता हूँ। हे विश्वरूप! मैं आपके न अन्त को देखता हूँ, न मध्य को और न आदि को ही।
  आपको मैं मुकुटयुक्त, गदायुक्त और चक्रयुक्त तथा सब ओर से प्रकाशमान तेज के पुंज, प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के सदृश ज्योतियुक्त, कठिनता से देखे जाने योग्य और सब ओर से अप्रमेयस्वरूप देखता हूँ।
  आप जानने योग्य परम अक्षर अर्थात परब्रह्म परमात्मा हैं। आप ही इस जगत के परम आश्रय हैं, आप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं। ऐसा मेरा मत है।

 पिछले अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने अपनी बिभूतिओ के बारे में संक्षेप में बर्णन किये। जिसे सुनकर अर्जुन संतुस्ट हो गया, सुनकर अर्जुन को प्रेरणा भी मिली। अर्जुन ने कहा आप ने मुझपर अनुग्रह करने केलिए जो भी परम गोपनीय वचन और उपदेस कहा उसे सुनकर मेरा अज्ञान नस्ट होगया लेकिन मैं इसे प्रत्येख में देखना चाहता हूँ। क्योंकि देखने और सुन ने में पूर्व और पश्चिम का अंतर है। 
  भगवान ने कहा मेरे उस रूप को देखने केलिए दिव्यद्रुस्टि आवश्यक है।  जो मैं तुह्मे प्रदान करता हूँ। अब तू देख। 
  अर्जुन जब उस विराट रूप को देखा तो भयभीत होने लगा।  अर्जुन जैसे महारथी भी कांपने लगा तो हम और आप क्या है। 
 अर्जुन ने कहा आप ही परब्रह्म परमात्मा है, आप ही अविनाशी और सनातन पुरुष है।