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शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत १०-१८(अध्याय -2)

Read Bhagwat Geeta In Hindi

हरि ॐ त्तसत
१०-तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः।
११-अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।
१२-न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌।
१३-देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।
१४-मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।
१५-यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।
१६-नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः।
१७-अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्‌।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।
१८-अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।

  हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! महाराज श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले।
 हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए तो शोक करता है और पण्डितों जैसे वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते।
  न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे
  जैसे जीवात्मा की देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।
  हे कुंतीपुत्र! सर्दी और गर्मी, सुख और दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर।
  क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख और सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है।
  असत्‌ वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्‌ का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।
  नाशरहित तो तू उसको ही जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्‌- दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
  इस नाशरहित, अप्रमेय और नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर।

 एक सफल व्यक्ति का कर्तव्य होता है के सफलता और असफलता दोनों स्थिति में स्थिर रहे और अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहें।
 सफलता और असफलता सुख और दुख यह सब पहले थे अभी है और आगे भी रहेंगे।
 सफल व्यक्ति इन के चक्रव्यूह में नहीं पड़ते हैं और अपने कर्तव्य किए जाते हैं।
 असफलता में अधिक दुखी नहीं होते हैं और सफलता में अधिक खुश नहीं होते हैं और स्थिरता के साथ अपने कर्तव्य किए जाते हैं।
 असफलता की कोई सत्ता नहीं होती है और सफलता की अभाव नहीं होती है बशर्ते आप अपने कर्तव्य दृढ़ निश्चयपूर्वक करते रहे।

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