Breaking

यह ब्लॉग खोजें

गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत १-१५(अध्याय -3)

Read Bhagwat Geeta In Hindi

Geetapower-Bhagvad gita हरि ॐ तत्सत १-१५(अध्याय -3)

१-ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।
२-व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌।
३-श्रीभगवानुवाच लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌।
४-न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।
५-न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।
६-कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।
७-यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।
८-नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः।
९-यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।
१०-सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌।
११-देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।
१२-इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः।
१३-यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌।
१४-अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।
१५-कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌।

  अर्जुन बोले,हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?
  आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ।
  श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है।
  मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता  को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है।
  निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी  कर्म किए बिना नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है।
  जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर और मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी और दम्भी कहा जाता है।
  किन्तु हे अर्जुन! जो मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।
  तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।
  यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर।
  प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो।
  तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।
  यज्ञ द्वारा बढ़ाए हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है, वह चोर ही है।
  यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं।
  सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं और अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है और वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है।
  कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।

   कर्म तो हर क्षण करना पड़ता है, क्षण भर के लिए भी  इंसान कर्म किए बिना नहीं रहता है। या तो कुछ करता है या कुछ नहीं करता है।
  कर्म करना किसे कहते हैं? कर्म को आरंभ करना कर्म करना नहीं है, कर्म को करते रहना भी कर्म करना नहीं है, लेकिन  कर्म को  पूरा कर देने को कर्म करना कहते हैं।
  कर्म करने वाला व्यक्ति वह होता है जो अपने मन से इंद्रियों को वश में  कर के समस्त इंद्रियों द्वारा कर्म करने का आचरण करता है।
 जब आप किसी काम को करते हो तो आपका मन सहित सभी इंद्रियां उस काम में लिप्त होना चाहिए तभी आप उस काम में सफलता प्राप्त कर  सकते हैं।
  गीता के अनुसार समस्त  प्राणी अन्न से उत्पत्ति होती है, अन्न बृष्टि से और वृष्टि यज्ञ से और यज्ञ कर्म से उत्पत्ति होती है । अर्थात कर्म करना ही सबसे श्रेष्ठ है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें