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शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत १६-३०(अध्याय -3)

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Geetapower-Bhagvad gita हरि ॐ तत्सत १६-३०(अध्याय -3)

१६-एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।
१७-यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।
१८-संजय उवाच: नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।
१९-तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः।
२०-कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।
२१-यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।
२२-न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।
२३-यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।
२४-यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्‌।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।
२५-सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्‌।
२६-न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम्‌।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्‌।
२७-प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।
२८-तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।
२९-प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌।
३०-मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।

 जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार के परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है।
  परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त  हो, उसके लिए कोई भी कर्तव्य नहीं है।
  उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र स्वार्थ का संबंध नहीं रहता।
  इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को ही प्राप्त हो जाता है।
  जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए तू भी कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है।
  श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करते है, अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लगते है ।
  मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कुछ भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ।
  क्योंकि हे पार्थ! यदि मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।
  इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ।
   कर्म में आसक्त अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान लोग भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे।
  परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की कर्म में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करते हुए उनसे भी वैसे ही करवाए।
  वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सभी प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है।
  परन्तु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग के तत्व को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता।
  प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे।
  मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित, सन्तापरहित होकर युद्ध कर।

  दुनियां में सभी मानव जाति को कर्म करना अनिवार्य है।
एक सफल पुरुष को सब कुछ प्राप्त हो जाने के बाद भी निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए ।
  क्यों कि एक सफल पुरुष की अनुसरण सभी मानव जाति करते रहते है ।
  अगर वह कर्म नहीं करेगा तो दूसरे व्यक्ति भी कर्म करना छोड़ देंगे और असफलता की ओर बढ़ते चलेंगे । इस असफलता का कारण भी वह सफल पुरुष ही होगा जिसने सब कुछ प्राप्त हो जाने के बादभी निरन्तर कर्म नहीं किया ।
  इसलिए भगवान ने कहा कि "ब्रह्माण्ड में मेरे लिए कुछ भी अप्राप्ती वस्तु प्राप्त करने को न होने के बाद भी मैं निरन्तर कर्म करता हूँ और तूझे भी अर्थात् सभी मानव जाति को निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए"।

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