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गुरुवार, 3 जनवरी 2019

Srimad Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत ३१-४२(अध्याय -4)

Srimad Bhagvad gita in hindi 

Geetapower-Bhagvad gita हरि ॐ तत्सत ३१-४२(अध्याय -4)

३१-यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्‌।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम।
३२-एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे।
३३-श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।
३४-तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः।
३५-यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भुतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।
३६-अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि।
३७-यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।
३८-न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।
३९-श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।
४०-अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।
४१-योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम्‌।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
४२-तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।

  हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को ही प्राप्त होते हैं। और यज्ञ न करने वाले पुरुष के लिए यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर कैसे परलोक सुखदायक हो सकता है?
  इस प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार से कहे गए हैं। उन सबको मन, इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा सम्पन्न होने वाले जान, इस प्रकार तत्व से जानकर उनके अनुष्ठान द्वारा, कर्म बंधन से सर्वथा मुक्त हो जाएगा।
  हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है और यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं।
  इस ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत्‌ प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश देंगे।
  जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा। ज्ञान द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों को निःशेषभाव से पहले अपने में और पीछे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में भी देखेगा।
  यदि तू अन्य सब पापियों से अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञान रूप नौका द्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर ही जाएगा।
  क्योंकि हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय करता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है।
  इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप आत्मा में पा लेता है।
  जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है और ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के ही तत्काल भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।
  विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न ही यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है।
  हे धनंजय! जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है, जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किए हुए अन्तःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधता।
  इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का विवेकज्ञान रूप तलवार द्वारा छेदन करके समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।

  पूरे मानव जाति को जीवन भर कर्म करना अनिवार्य है और उस कर्म को सफलतापूर्वक करने के लिए ज्ञान की अत्यंत आवश्यक है। अगर पर्याप्त ज्ञान ना हो तो कर्म को सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता है।
   कर्म और ज्ञान के साथ साथ यज्ञ की भी आवश्यकता है। वैसे यज्ञ तो बहुत प्रकार के हैं, एक यज्ञ यह भी है की परमात्मा के प्रति भक्ति। अगर आप हर कर्म परमात्मा को समर्पण कर के करते हैं तो सफल निश्चय हो सकते हैं।

Bhagvad gita in hindi

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