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बुधवार, 2 जनवरी 2019

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत १६-३०(अध्याय -4)

Bhagvad gita in hindi 

Geetapower-Bhagvad gita हरि ॐ तत्सत १६-३०(अध्याय -4)
१६-किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌।
१७-कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।
१८-कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्‌।
१९-यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः।
२०-त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः।
२१-निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌।
२२-यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।
२३-गतसङ्‍गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।
२४-ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।
२५-दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति।
२६-श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति।
२७-सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते।
२८-द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।
२९-अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।
३०-अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।

कर्म क्या है? और अकर्म क्या है? इस प्रकार इसका निर्णय करने में बुद्धिमान पुरुष में मोहित हो जाते हैं। इसलिए वह कर्मतत्व, मैं तुझे भली-भांति समझा कर कहूंगा। जिसे जानकर तू अशुभ से अर्थात कर्म बंधन से मुक्त हो जाएगा।
  कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और आकर्मण का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति गहन है।
  जो मनुष्य कर्म में अकर्म को देखता है और जो अकर्म में कर्म को देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी समस्त कर्मों को करने ही वाला है।
  जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म, बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि द्वारा भस्म हो गए होते हैं, उस महापुरुष को तो ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं।
  जो पुरुष समस्त कर्मों में और कर्मों के फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्य तृप्त है, वह कर्मों में भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी तो नहीं करता।
  जिसका अंतःकरण और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ हो,  जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया हो, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर-संबंधी कर्म करता हुआ पापों को नहीं प्राप्त होता।
  जो बिना इच्छा के ही अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्ट रहता है, जिसमें ईर्ष्या का सर्वथा अभाव हो गया है, जो हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से सर्वथा अतीत हो गया हो ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनसे बँधता नहीं।
  जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गया हो, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता हो- ऐसा केवल यज्ञसम्पादन के लिए कर्म करने वालों के सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं।
  जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्रुवा आदि ब्रह्म है और हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ता द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया ब्रह्म है- उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्य फल ब्रह्म ही हैं।
  दूसरे योगी जन देवताओं के पूजन रूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मारूप अग्नि में अभेद दर्शनरूप यज्ञ द्वारा आत्मरूप यज्ञ का हवन किया करते हैं।
  अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियों को संयम रूप अग्नियों में हवन करते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादि समस्त विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नियों में हवन करते हैं।
  दूसरे योगीजन इन्द्रियों की, सम्पूर्ण क्रियाओं और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम योगरूप अग्नि में हवन करते हैं।
  कई पुरुष द्रव्य संबंधी यज्ञ करने वाले होते हैं, कितने ही तपस्या रूप यज्ञ करने वाले हैं और दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही अहिंसादि तीक्ष्णव्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करने वाले होते हैं।
  दूसरे कितने ही योगीजन अपान वायु में प्राणवायु को हवन करते रहते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते रहते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणायाम परायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में ही हवन करते हैं।
  ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जानने वाले होते हैं।

 जो पुरुष समस्त कर्मों में और कर्मों के फलों में आशा का त्याग करके संसार के आश्रय से मुक्त हो जाता है , वह हमेशा परमात्मा में तृप्त रहता है और अपने कर्मों को भली-भांति करता है।
 लेकिन उसके मन में कभी अहंकार पैदा नहीं होता है।

Bhagvad gita in hindi 

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