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रविवार, 18 नवंबर 2018

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत २६-४७(अध्याय -1)

Read Bhagwat Geeta In Hindi


२६-तत्रापश्यत्स्थितान्‌ पार्थः पितृनथ पितामहान्‌।   आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।
  इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों , दादों-परदादों, गुरुओं , मामाओं , भाइयों , पुत्रों, पौत्रों तथा मित्रों, ससुरों और सुहृदों को भी देखा।

२७-श्वशुरान्‌ सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
    तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्‌ बन्धूनवस्थितान्‌।
  उन उपस्थित सम्पूर्ण बंधुओं को देखकर कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले। 


२८-कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत्‌।
   दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्‌
२९-सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते।
अर्जुन बोले- हे कृष्ण! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी स्वजनसमुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है और मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है।

३०-गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते।
   न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।
हाथ से गांडीव धनुष भी गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने को समर्थ भी नहीं हूँ।

३१-निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
  न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।
हे केशव! मैं लक्षणों को विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता।

३२-न काङ्‍क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
  किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा।
हे कृष्ण! मैं न विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से क्या लाभ है?

३३-येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
  त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।
हमें जिनके लिए राज्य और भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही  सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध केलिए खड़े हैं।

३४-आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
  मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा।
गुरुजन, ताऊ-चाचे, उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं।

३५-एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
  अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।
हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता हुॅ, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?

३६-निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
  पापमेवाश्रयेदस्मान्‌ हत्वैतानाततायिनः।
हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमको क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर हमें पाप ही लगेगा।

३७-तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्‌।
  स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।
अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?

३८-यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
  कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्‌।
३९-कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्‌।
   कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।
यद्यपि भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानकर हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?

४०-कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
  धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।
४१-अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
  स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः।
कुल के नाश होंने से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप बहुत फैल जाता है।
हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाते हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने से वर्णसंकर उत्पन्न होते है।

४२-संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
  पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।
४३-दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः।
  उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।
वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को भी नरक में ले जाने के लिए ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं।
इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म भी नष्ट हो जाते हैं।

४४-उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
  नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।
४५-अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्‌।
  यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।
हे जनार्दन! जिनके कुल धर्म नष्ट हो गया हो, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चितकाल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आए हैं।
 शोक! हम बुद्धिमान लोग होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को भी मारने के लिए उद्यत हो गए हैं।

४६-यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
  धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्‌।
यदि मुझ शस्त्ररहित और सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा।

४७-एवमुक्त्वार्जुनः सङ्‍ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्‌।
  विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।
संजय बोले- रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन यह कहकर, बाणसहित धनुष को भी त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः। 



अर्जुन जब दोनों सेनाओं के बीच अपने रथ को खड़ा करके देखा तो पाया के जिनसे वह युद्ध करने वाला है वह सब उसके अपने हैं और अपनो से लड़ने के बारे में सोच कर अर्जुन के मन दुर्बल और अंग शिथिल पढ़ने लगे। अर्जुन के लिए वह एक नकारात्मक घड़ी थी क्योंकि युद्ध को न करने की जितने कारण थे वह सब कारण उसके मन में आ रहे थे।

   किसी भी काम को करने के लिए अगर एक बार ठान लिए तो फिर उस काम को न करने के कारणों के बारे में नहीं सोचना चाहिए। उस काम को कैसे पूरा किया जाए इस बारे में सोचना चाहिए। काम को क्यों नहीं करना चाहिए यह सोचना एक नकारात्मक सोच होता है। सकारात्मक सोच वाले हमेशा यह सोचते के काम को कैसे सही ढंग से पूरा किया जाए।

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