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शनिवार, 29 दिसंबर 2018

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत ३१-४३(अध्याय -3)

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Geetapower-Bhagvad gita हरि ॐ तत्सत ३१-४३(अध्याय -3)

३१-ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः।
३२-ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः।
३३-सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।
३४-इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।
३५-श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।
३६-अर्जुन उवाचः अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।
३७-श्रीभगवानुवाच काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌।
३८-धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌।
३९-आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।
४०-इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्‌।
४१-तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्‌।
४२-इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।
४३-एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्‌।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः।


 मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धा के साथ मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं।
  कीन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ।
  सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं और अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान्‌ अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा।
  इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में, अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग, द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को ईन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए। वे दोनों ही इनके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान्‌ शत्रु हैं।
  अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरो के धर्म से गुण रहित भी अपना ही धर्म अति उत्तम है। अपने ही धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।
  अर्जुन बोले- हे कृष्ण! यह मनुष्य न चाहता हुआ भी बलात्‌ लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है।
  श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही तो क्रोध है। यह भोगो से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसे ही तू इस विषय में वैरी जान।
  जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका रहता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँक जाता है।
  और हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी पूर्ण न होने वाले काम रूप ज्ञानियों के नित्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान भी ढँका हुआ है।
  इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम- इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करते है।
  इसलिए हे अर्जुन! तू इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल।
  इन्द्रियों को स्थूल शरीर से श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से श्रेष्ठ मन है, मन से भी श्रेष्ठ बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त श्रेष्ठ, है वह आत्मा है।
  इस प्रकार बुद्धि से श्रेष्ठ अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल।

 मनुष्य को कभी भी इंद्रियों के वश में नहीं होना चाहिए, बल्कि इंद्रियों को अपने वश में करके रखना चाहिए।
  काम और क्रोध दोनों को अपने से दूर रखना चाहिए। जैसे मैल द्वारा दर्पण ढँक जाता है वैसे काम और क्रोध द्वारा ज्ञानियों का ज्ञान ढँका हुआ रह जाता है। इसलिए ज्ञान का नाश करने वाला महान पापी काम और क्रोध दोनों को मार डालना चाहिए।
 इंद्रियों से बड़ा मन है, मन से बड़ा बुद्धि है, बुद्धि से बड़ा आत्मा है। सबसे श्रेष्ठ आत्मा को अच्छी तरह जान कर बुद्धि द्वारा मन को वश में करके काम और क्रोध को मिटा देना चाहिए।
Bhagvad gita in hindi

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