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बुधवार, 2 जनवरी 2019

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत १-१५(अध्याय -4)

Bhagvad gita in hindi 


१-श्री भगवानुवाच इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌।
२-एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।
३-स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌।
४-अर्जुन उवाच अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।
५-श्रीभगवानुवाच बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।
६-अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्‌।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।
७-यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌।
८-परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।
९-जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।
१०-वीतरागभय क्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।
११-ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।
१२-काङ्‍क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।
१३-चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌।
१४-न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।
१५-एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्‌।

  श्री भगवान बोले- मैंने इस अविनाशी योग, सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा, मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा।
  हे परन्तप अर्जुन इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्त हो गया।
  तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात गुप्त रखने योग्य विषय है।
  अर्जुन बोले- आपका जन्म तो अर्वाचीन अभी का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है, कल्प के आदि में हो चुका था। तब मैं इस बात को कैसे समूझँ कि आप ने कल्प के आदि में सूर्य से यह योग कहा था?
  श्री भगवान बोले- हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, किन्तु मैं जानता हूँ।
  मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी, समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके योगमाया से प्रकट होता हूँ।
  हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने रूप को रचता हूँ और साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।
  साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए और पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए, धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट होता रहता हूँ।
  हे अर्जुन! मेरे जन्म-कर्म दिव्य अर्थात निर्मल और अलौकिक हैं- इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से जान लेता है, वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, परन्तु मुझे ही प्राप्त होता है।
  पहले भी जिनके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गए थे और जो लोग मुझ में अनन्य प्रेमपूर्वक स्थित रहते थे, ऐसे मेरे आश्रित रहने वाले बहुत से भक्त ज्ञान रूप तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।
  हे अर्जुन! जो भक्त मुझको जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ, क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।
  इस मनुष्य लोक में कर्मों के फल को चाहने वाले लोग देवताओं का पूजन करते हैं क्योंकि उनको कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र प्राप्त हो जाती है।
  ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभाग पूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू अकर्ता ही जान।
  कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए कर्म मुझे लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता।
  पूर्वकाल में मुमुक्षुओं ने इस प्रकार जानकर ही कर्म किए हैं, इसलिए तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए जाने वाले कर्मों को  कर।


  जिन लोगों की राग भय और क्रोध नष्ट होकर परमात्मा में प्रेम पूर्वक स्थित रहते हैं, वही लोग ज्ञान रूप तप से पवित्र होकर परमात्मा को प्राप्त होते हैं।

 जिन लोगों की कर्मों के फल में आशा नहीं है वही लोग कर्म के बंधन से मुक्त हो जाता है। अर्थात कर्म उन्हें बांधकर नहीं रखते, वह स्व इच्छा से कर्म करते हैं।
Bhagvad gita in hindi

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