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मंगलवार, 15 जनवरी 2019

जनवरी 15, 2019

Srimad Bhagvad Gita in hindi हरि ॐ तत्सत १६-३०(अध्याय -6)

Srimad Bhagvad Gita in hindi 

Srimad Bhagvad Gita in hindi हरि ॐ तत्सत १६-३०(अध्याय -6)

१६-नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।
१७-युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।
१८-यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।
१९-यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः।
२०-यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।
२१-सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्‌।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः।
२२-यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।
२३-तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।
२४-सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः।
२५-शनैः शनैरुपरमेद्‍बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌।
२६-यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌।
२७-प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌।
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌।
२८-युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते।
२९-सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।
३०-यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।


  हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिलकुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।
  दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।
  अत्यन्त वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भलीभाँति स्थित हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण भोगों से स्पृहारहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है।
  जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है।
  योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है।
  इन्द्रियों से अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है, और जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता नहीं।
  परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उसे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता।
  जो दुःखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिए। वह योग न उकताए हुए अर्थात धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है।
  संकल्प से जो उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेष रूप से त्यागकर और मन द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभाँति रोककर।
  क्रम-क्रम अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे।
  यह अस्थिर रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे।
  क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शांत है, जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है।
  पाप रहित योगी इसी प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रूप अनन्त आनंद का अनुभव करता है।
   जो सर्वव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है।
  जो भी पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।


 वायु रहित स्थान में दीपक जैसे स्थिर रहता है, उसी तरह लोभ माया काम क्रोध से मुक्त व्यक्ति परमात्मा के ध्यान में  वैसे ही स्थिर रहता है।
दुःख रूप संसार के संयोग से जो मुक्त है उसका नाम योग है। पाप रहित योगी इसी प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुख पूर्वक परमब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रूप अनन्त आनंद का अनुभव करता है।

गुरुवार, 10 जनवरी 2019

जनवरी 10, 2019

Srimad Bhagvad Gita in hindi हरि ॐ तत्सत १-१५(अध्याय -6)

 Srimad Bhavad Gita

Srimad Bhagvad Gita in hindi हरि ॐ तत्सत १-१५(अध्याय -6)

१-अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।
२-यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन।
३-आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।
४-यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसङ्‍कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते।
५-उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।
६-बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्‌।
७-जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।
८-ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः।
९-सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।
१०-योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।
११-शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्‌।
१२-तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।
१३-समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌।
१४-प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।
१५-युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।

  श्री भगवान बोले- जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है।
  हे अर्जुन! जिसको संन्यास कहते हैं, उसी को तू योग जान क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता।
  योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्वसंकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा जाता है।
  जिस काल में न तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है।
  अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।
  जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है।
  सरदी-गरमी, सुख-दुःखादि में तथा मान और अपमान में जिसके अन्तःकरण की वृत्तियाँ भलीभाँति शांत हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानन्दघन परमात्मा सम्यक्‌ प्रकार से स्थित है अर्थात उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं।
  जिसका अन्तःकरण ज्ञान और विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकाररहित है, जिसकी इन्द्रियाँ भलीभाँति जीती हुई हैं और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण समान हैं, वह योगी युक्त अर्थात भगवत्प्राप्त है, ऐसे कहा जाता है।
  सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और बन्धुगणों में, धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त श्रेष्ठ है।
  मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरंतर परमात्मा में लगाए।
  शुद्ध भूमि में, जिसके ऊपर क्रमशः कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करके।
  उस आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे।
  काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर, अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ।
  ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित और भयरहित तथा भलीभाँति शांत अन्तःकरण वाला सावधान योगी मन को रोककर मुझमें चित्तवाला और मेरे परायण होकर स्थित होए।
   जो वश में किए हुए मनवाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरंतर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझमें रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठारूप शान्ति को प्राप्त होता है।

जो पुरुष कर्मों के फल को त्याग कर कर्म करता है वास्तव में वही योगी है।
जो पुरुष मन सहित इंद्रियों और शरीर को जीत लेता है वह अपना ही मित्र होता है और जो मन सहित इंद्रियों और शरीर को जीत नहीं पाता है वह खुद अपना ही शत्रु होता है।
मन को वश में किया हुआ योगी ही परमात्मा को प्राप्त होता है।

बुधवार, 9 जनवरी 2019

जनवरी 09, 2019

Srimad Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत १६-२९(अध्याय -5)

Srimad Bhagvad gita in hindi 

Bhagvad gita in hindi

१६-ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्‌।
१७-तद्‍बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः।
१८-विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।
१९-इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः।
२०-न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्‌।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः।
२१-बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्‌।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।
२२-ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।
२३-शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्‌।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।
२४-योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति।
२५-लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।
२६-कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्‌।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्‌।
२७-स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।
२८-यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।
२९-भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।


  परन्तु जिनका अज्ञान परमात्मा के तत्व ज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है ।
  जिनका मन तद्रूप हो रहा है और जिनकी बुद्धि तद्रूप हो रही है और सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही जिनकी निरंतर एकीभाव से स्थिति है, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान द्वारा पापरहित होकर अपुनरावृत्ति को प्राप्त होते हैं।
  वे ज्ञानी लोग विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी ही होते हैं।
  जिनका मन समभाव में ही स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थित हैं।
  जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं होता और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न होता, वह स्थिरबुद्धि, संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है।
  बाहर के विषयों में भी आसक्तिरहित अन्तःकरण वाला साधक आत्मा में स्थित जो ध्यानजनित सात्विक आनंद है, उसको प्राप्त होता है, तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के ध्यानरूप योग में अभिन्न भाव से स्थित पुरुष अक्षय आनन्द का अनुभव करता है।
  जो ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषों को सुखरूप भासते हैं, तो भी दुःख के ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात अनित्य हैं। इसलिए हे अर्जुन! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।
  जो साधक इस मनुष्य शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही पुरुष योगी है और वही सुखी है।
  जो पुरुष अन्तरात्मा में सुखवाला है, आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है, वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्य योगी शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है।
  जिनके सब पाप नष्ट हो गए हैं, जिनके सब संशय ज्ञान द्वारा निवृत्त हो गए हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शांत ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
  काम-क्रोध से रहित और जीते हुए चित्तवाले, परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी पुरुषों के लिए सब ओर से शांत परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण है।
  बाहर के विषय और भोगों को न चिन्तन करता हुआ बाहर ही निकालकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके, जिसकी इन्द्रियाँ मन और बुद्धि जीती हुई हैं, ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है।
  मेरा भक्त मुझे सब यज्ञ और तपों का भोगने वाला, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण भूत-प्राणियों का सुहृद् अर्थात स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्व से जानकर शान्ति को प्राप्त होता है।

जो इंद्रियों और विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाला सुख है, वह हमेशा दुःख देने वाला ही होता है और वह सुख अस्थाई है अर्थात वह सुख स्थाई नहीं है।
जो मनुष्य इस शरीर के नाश होने से पहले काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन कर लेता है वही मनुष्य योगी है और सुखी है।

मंगलवार, 8 जनवरी 2019

जनवरी 08, 2019

Srimad Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत १-१५(अध्याय -5)

Srimad Bhagvad gita in hindi 

Bhagvad gita in hindi

१-सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्‌।
२-सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।
३-ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्‍क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।
४-साङ्‍ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्‌।
५-यत्साङ्‍ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते।
एकं साङ्‍ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।
६-सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।
७-योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।
८-नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌।
९-प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌।
१०-ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।
११-कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये।
१२-युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।
१३-सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌।
१४-न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।
१५-नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।

  अर्जुन बोले, हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्यास की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं। इसलिए इन दोनों में से जो एक मेरे लिए भलीभाँति निश्चित कल्याणकारक साधन हो, उसको कहिए।
  श्री भगवान ने कहा कि कर्म संन्यास और कर्मयोग, ये दोनों ही परम कल्याण के करने वाले हैं, परन्तु उन दोनों में भी कर्म संन्यास से कर्मयोग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है।
  हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि राग-द्वेषादि द्वंद्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है।
  उपर्युक्त संन्यास और कर्मयोग को मूर्ख लोग पृथक्‌-पृथक् फल देने वाले, ऐसा कहते हैं न कि पण्डितजन, क्योंकि दोनों में से एक में भी सम्यक्‌ प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होता है।
  ज्ञान योगियों द्वारा जो परमधाम को प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों के द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है।
  परन्तु हे अर्जुन! कर्मयोग बिना संन्यास अर्थात्‌ मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है और भगवत्स्वरूप को मनन करने वाला कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।
  जिसका मन अपने वश में है और जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता।
  तत्व को जानने वाला सांख्ययोगी देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और मूँदता हुआ भी, सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं- इस प्रकार समझकर निःसंदेह ऐसा मानें कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ।
  जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता।
  कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय और मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्याग कर अन्तःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।
  कर्मयोगी कर्मों के फल त्याग करके भगवत्प्राप्ति रूप शान्ति को प्राप्त होता है और सकामपुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बँधता है।
  अन्तःकरण जिसके वश में है, ऐसा सांख्य योग का आचरण करने वाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीर रूप घर में सब कर्मों को मन से भी त्यागकर आनंदपूर्वक सच्चिदानंदघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है।
  परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की रचना करते हैं, किन्तु स्वभाव ही बर्त रहा है।
  सर्वव्यापी परमेश्वर न किसी के पाप कर्म को और न किसी के शुभकर्म को ही ग्रहण करता है, किन्तु अज्ञान द्वारा ज्ञान ढँका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं।

   राग और द्वेष के द्वंद्वो से जो पुरुष मुक्त रहता है वह संसार में हमेशा सुखी रहता है और संसार के बंधन से भी मुक्त रहता है।
 मनुष्य के लिए ज्ञानयोग जितना महत्वपूर्ण है कर्मयोग भी उतना ही महत्वपूर्ण है क्योंकि कर्म के बिना जीवन सफल नहीं हो सकता है।
 जो पुरुष कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके कर्म करता है वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भांति पाप से लिप्त नहीं होता है।
 कर्मयोगी कर्मों के फल को त्याग करके भगवत्प्राप्ति रूप शांति को प्राप्त होता है।

गुरुवार, 3 जनवरी 2019

जनवरी 03, 2019

Srimad Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत ३१-४२(अध्याय -4)

Srimad Bhagvad gita in hindi 

Geetapower-Bhagvad gita हरि ॐ तत्सत ३१-४२(अध्याय -4)

३१-यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्‌।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम।
३२-एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे।
३३-श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।
३४-तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः।
३५-यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भुतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।
३६-अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि।
३७-यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।
३८-न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।
३९-श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।
४०-अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।
४१-योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम्‌।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
४२-तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।

  हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को ही प्राप्त होते हैं। और यज्ञ न करने वाले पुरुष के लिए यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर कैसे परलोक सुखदायक हो सकता है?
  इस प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार से कहे गए हैं। उन सबको मन, इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा सम्पन्न होने वाले जान, इस प्रकार तत्व से जानकर उनके अनुष्ठान द्वारा, कर्म बंधन से सर्वथा मुक्त हो जाएगा।
  हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है और यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं।
  इस ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत्‌ प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश देंगे।
  जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा। ज्ञान द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों को निःशेषभाव से पहले अपने में और पीछे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में भी देखेगा।
  यदि तू अन्य सब पापियों से अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञान रूप नौका द्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर ही जाएगा।
  क्योंकि हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय करता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है।
  इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप आत्मा में पा लेता है।
  जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है और ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के ही तत्काल भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।
  विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न ही यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है।
  हे धनंजय! जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है, जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किए हुए अन्तःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधता।
  इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का विवेकज्ञान रूप तलवार द्वारा छेदन करके समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।

  पूरे मानव जाति को जीवन भर कर्म करना अनिवार्य है और उस कर्म को सफलतापूर्वक करने के लिए ज्ञान की अत्यंत आवश्यक है। अगर पर्याप्त ज्ञान ना हो तो कर्म को सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता है।
   कर्म और ज्ञान के साथ साथ यज्ञ की भी आवश्यकता है। वैसे यज्ञ तो बहुत प्रकार के हैं, एक यज्ञ यह भी है की परमात्मा के प्रति भक्ति। अगर आप हर कर्म परमात्मा को समर्पण कर के करते हैं तो सफल निश्चय हो सकते हैं।

Bhagvad gita in hindi

बुधवार, 2 जनवरी 2019

जनवरी 02, 2019

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत १६-३०(अध्याय -4)

Bhagvad gita in hindi 

Geetapower-Bhagvad gita हरि ॐ तत्सत १६-३०(अध्याय -4)
१६-किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌।
१७-कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।
१८-कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्‌।
१९-यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः।
२०-त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः।
२१-निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌।
२२-यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।
२३-गतसङ्‍गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।
२४-ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।
२५-दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति।
२६-श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति।
२७-सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते।
२८-द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।
२९-अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।
३०-अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।

कर्म क्या है? और अकर्म क्या है? इस प्रकार इसका निर्णय करने में बुद्धिमान पुरुष में मोहित हो जाते हैं। इसलिए वह कर्मतत्व, मैं तुझे भली-भांति समझा कर कहूंगा। जिसे जानकर तू अशुभ से अर्थात कर्म बंधन से मुक्त हो जाएगा।
  कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और आकर्मण का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति गहन है।
  जो मनुष्य कर्म में अकर्म को देखता है और जो अकर्म में कर्म को देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी समस्त कर्मों को करने ही वाला है।
  जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म, बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि द्वारा भस्म हो गए होते हैं, उस महापुरुष को तो ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं।
  जो पुरुष समस्त कर्मों में और कर्मों के फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्य तृप्त है, वह कर्मों में भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी तो नहीं करता।
  जिसका अंतःकरण और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ हो,  जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया हो, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर-संबंधी कर्म करता हुआ पापों को नहीं प्राप्त होता।
  जो बिना इच्छा के ही अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्ट रहता है, जिसमें ईर्ष्या का सर्वथा अभाव हो गया है, जो हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से सर्वथा अतीत हो गया हो ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनसे बँधता नहीं।
  जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गया हो, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता हो- ऐसा केवल यज्ञसम्पादन के लिए कर्म करने वालों के सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं।
  जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्रुवा आदि ब्रह्म है और हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ता द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया ब्रह्म है- उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्य फल ब्रह्म ही हैं।
  दूसरे योगी जन देवताओं के पूजन रूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मारूप अग्नि में अभेद दर्शनरूप यज्ञ द्वारा आत्मरूप यज्ञ का हवन किया करते हैं।
  अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियों को संयम रूप अग्नियों में हवन करते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादि समस्त विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नियों में हवन करते हैं।
  दूसरे योगीजन इन्द्रियों की, सम्पूर्ण क्रियाओं और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम योगरूप अग्नि में हवन करते हैं।
  कई पुरुष द्रव्य संबंधी यज्ञ करने वाले होते हैं, कितने ही तपस्या रूप यज्ञ करने वाले हैं और दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही अहिंसादि तीक्ष्णव्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करने वाले होते हैं।
  दूसरे कितने ही योगीजन अपान वायु में प्राणवायु को हवन करते रहते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते रहते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणायाम परायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में ही हवन करते हैं।
  ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जानने वाले होते हैं।

 जो पुरुष समस्त कर्मों में और कर्मों के फलों में आशा का त्याग करके संसार के आश्रय से मुक्त हो जाता है , वह हमेशा परमात्मा में तृप्त रहता है और अपने कर्मों को भली-भांति करता है।
 लेकिन उसके मन में कभी अहंकार पैदा नहीं होता है।

Bhagvad gita in hindi 
जनवरी 02, 2019

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत १-१५(अध्याय -4)

Bhagvad gita in hindi 


१-श्री भगवानुवाच इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌।
२-एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।
३-स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌।
४-अर्जुन उवाच अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।
५-श्रीभगवानुवाच बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।
६-अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्‌।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।
७-यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌।
८-परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।
९-जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।
१०-वीतरागभय क्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।
११-ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।
१२-काङ्‍क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।
१३-चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌।
१४-न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।
१५-एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्‌।

  श्री भगवान बोले- मैंने इस अविनाशी योग, सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा, मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा।
  हे परन्तप अर्जुन इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्त हो गया।
  तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात गुप्त रखने योग्य विषय है।
  अर्जुन बोले- आपका जन्म तो अर्वाचीन अभी का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है, कल्प के आदि में हो चुका था। तब मैं इस बात को कैसे समूझँ कि आप ने कल्प के आदि में सूर्य से यह योग कहा था?
  श्री भगवान बोले- हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, किन्तु मैं जानता हूँ।
  मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी, समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके योगमाया से प्रकट होता हूँ।
  हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने रूप को रचता हूँ और साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।
  साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए और पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए, धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट होता रहता हूँ।
  हे अर्जुन! मेरे जन्म-कर्म दिव्य अर्थात निर्मल और अलौकिक हैं- इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से जान लेता है, वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, परन्तु मुझे ही प्राप्त होता है।
  पहले भी जिनके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गए थे और जो लोग मुझ में अनन्य प्रेमपूर्वक स्थित रहते थे, ऐसे मेरे आश्रित रहने वाले बहुत से भक्त ज्ञान रूप तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।
  हे अर्जुन! जो भक्त मुझको जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ, क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।
  इस मनुष्य लोक में कर्मों के फल को चाहने वाले लोग देवताओं का पूजन करते हैं क्योंकि उनको कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र प्राप्त हो जाती है।
  ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभाग पूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू अकर्ता ही जान।
  कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए कर्म मुझे लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता।
  पूर्वकाल में मुमुक्षुओं ने इस प्रकार जानकर ही कर्म किए हैं, इसलिए तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए जाने वाले कर्मों को  कर।


  जिन लोगों की राग भय और क्रोध नष्ट होकर परमात्मा में प्रेम पूर्वक स्थित रहते हैं, वही लोग ज्ञान रूप तप से पवित्र होकर परमात्मा को प्राप्त होते हैं।

 जिन लोगों की कर्मों के फल में आशा नहीं है वही लोग कर्म के बंधन से मुक्त हो जाता है। अर्थात कर्म उन्हें बांधकर नहीं रखते, वह स्व इच्छा से कर्म करते हैं।
Bhagvad gita in hindi