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शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

दिसंबर 14, 2018

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत ३९-५३(अध्याय -2)

Read Bhagwat Geeta In Hindi


३९-एषा तेऽभिहिता साङ्‍ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु।
बुद्ध्‌या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।
४०-यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌।
४१-व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌।
४२-यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।
४३-कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्‌।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।
४४-भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।
४५-त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌।
४६-यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।
४७-कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।
४८-योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।
४९-दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।
५०-बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्‌।
५१-कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्‌।
५२-यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।
५३-श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।

  हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन- जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भली-भाँति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा।
  इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है।
  इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं।
  जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात्‌ दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती।
  वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग क्षेम को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तःकरण वाला हो।
  सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है।
  तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।
  हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व ही योग कहलाता है।
  इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ अर्थात्‌ बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं।
  समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा, यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्मबंध से छूटने का उपाय है।
  क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं।
  जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को भलीभाँति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा।
  भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा।

   कर्म करने में हमारा अधिकार है उसके फलों में कभी नहीं।

  सफल व्यक्ति कर्म शुरू करने से पहले  फल के बारे में एक बार जरूर सोचता है लेकिन कर्म शुरू करने के बाद, उसके खत्म होने तक एक बार भी फल के बारे में नहीं सोचता है।

  लेकिन एक असफल व्यक्ति थोड़ा सा कर्म कर के फल के बारे में अधिक सोचता रहता है।

  कर्म ही भगवान भगवान है, अगर हम फल के बारे में हमेशा सोचते रहेंगे तो कर्म नहीं कर पाएंगे अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति कभी नहीं हो पाएगी।

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

दिसंबर 07, 2018

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत १९-३८(अध्याय -2)

Read Bhagwat Geeta In Hindi

१९-य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्‌।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।
२०-न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणोन हन्यते हन्यमाने शरीरे।
२१-वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्‌।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्‌।
२२-वासांसि जीर्णानि यथा विहायनवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।
२३-नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।
२४-अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।
२५-अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।
२६-अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्‌।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।
२७-जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।
२८-अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।
२९-आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्‌।
३०-देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न  त्वं शोचितुमर्हसि।
३१-स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।
३२-यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्‌।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्‌।
३३-अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।
३४-अकीर्तिं चापि भूतानिकथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्‌।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।
३५-भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌।
३६-अवाच्यवादांश्च बहून्‌ वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌।
३७-हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।
३८-सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।

  जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है।
  यह आत्मा न तो किसी काल में भी जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।
  हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है?
  जैसे पुराने वस्त्रों को मनुष्य त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।
  इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता।
  क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, अदाह्य, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है।
  यह आत्मा अव्यक्त है, अचिन्त्य है और यह विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात्‌ तुझे शोक करना उचित नहीं है।
  किन्तु यदि तू इसे सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है।
  क्योंकि इस मान्यता के अनुसार, जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है।
  हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?
  कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई   अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता।
  यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य (जिसका वध नहीं किया जा सके) है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने योग्य नहीं है।
  तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है और तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है।
  अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं।
  किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को ही प्राप्त होगा।
  तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है।
  और जिनकी दृष्टि में तू पहले सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे।
तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दुःख और क्या होगा?
  तू युद्ध में मार कर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।
  जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा।

  आत्मा अमर है,अजन्मा है।यह कभी मरता नहीं,कभी नास नहीं होती ।
फिर भी लोग मरने से डरते हैं।
  जैसे हम शरीर में वस्त्र पहनते हैं और बदलते हैं उसी तरह आत्मा के लिए शरीर एक वस्त्र है जोकि समय के अनुसार बदलती रहती है। तो भला वस्त्र बदलने के लिए डर कैसा।
  उस चीज के लिए डरने से कोई फायदा नहीं है जिसे हम बदल नहीं सकते हैं।
  डर दो तरह के होते हैं एक वह होता है जो हमें आगे आने वाले खतरों से सतर्क कराती है और दूसरा बहेम होता है।
  सफलता की राहों में डर एक बहुत बड़ा वाधा है जो अच्छे-अच्छे सफल व्यक्ति को भी असफल बना सकती है। आपको अपने लक्ष्य से भटका सकती है।
  इसलिए डर को अपनी जिंदगी से निकाल देना चाहिए और अपने कर्तव्य और अपने लक्ष्य के ओर अग्रसर होना चाहिए।

शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

नवंबर 30, 2018

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत १०-१८(अध्याय -2)

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हरि ॐ त्तसत
१०-तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः।
११-अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।
१२-न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌।
१३-देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।
१४-मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।
१५-यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।
१६-नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः।
१७-अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्‌।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।
१८-अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।

  हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! महाराज श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले।
 हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए तो शोक करता है और पण्डितों जैसे वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते।
  न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे
  जैसे जीवात्मा की देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।
  हे कुंतीपुत्र! सर्दी और गर्मी, सुख और दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर।
  क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख और सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है।
  असत्‌ वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्‌ का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।
  नाशरहित तो तू उसको ही जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्‌- दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
  इस नाशरहित, अप्रमेय और नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर।

 एक सफल व्यक्ति का कर्तव्य होता है के सफलता और असफलता दोनों स्थिति में स्थिर रहे और अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहें।
 सफलता और असफलता सुख और दुख यह सब पहले थे अभी है और आगे भी रहेंगे।
 सफल व्यक्ति इन के चक्रव्यूह में नहीं पड़ते हैं और अपने कर्तव्य किए जाते हैं।
 असफलता में अधिक दुखी नहीं होते हैं और सफलता में अधिक खुश नहीं होते हैं और स्थिरता के साथ अपने कर्तव्य किए जाते हैं।
 असफलता की कोई सत्ता नहीं होती है और सफलता की अभाव नहीं होती है बशर्ते आप अपने कर्तव्य दृढ़ निश्चयपूर्वक करते रहे।

शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

नवंबर 23, 2018

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत ४ -९(अध्याय -2)

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४-कथं भीष्ममहं सङ्‍ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
  इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।
५-गुरूनहत्वा हि महानुभावाञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
  हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय भोगान्‌ रुधिरप्रदिग्धान्‌।
६-न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयोयद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
  यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।
  ७-कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
   यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌।
८-न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्‌।
  अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धंराज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्‌।
९-एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
  न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।
अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! रणभूमि में मैं किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि वे दोनों ही पूजनीय हैं।
  इसलिए इन गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ क्योंकि ईन गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों ही तो भोगूँगा।
  हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और न करना- इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे हमारे ही आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं।
   कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हैं, वही मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए।
  क्योंकि भूमि में निष्कण्टक तथा धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके।
  संजय बोले- हे राजन्‌! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन, अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर, श्री गोविंद भगवान्‌ से 'युद्ध नहीं करूँगा' यह स्पष्ट कहकर चुप हो गए।


 कभी कभी किसी काम को करते वक्त हम द्वंद में पड़ जाते हैं के यह काम करना  सही है या गलत है।
 कुछ काम ऐसे होते हैं जो करना हमें गलत तो लगता है  लेकिन वह सही होता है और कल्याणकारी होता है।
 ऐसी स्थिति में हम  दूसरों की सलाह लेना पसंद करते हैं।
 लेकिन सलाह उस व्यक्ति से लेना चाहिए जो आपकी हित के बारे में सोचता हो और समाज की कल्याण के बारे में  सोचता हो।
  जैसे अर्जुन ने श्री कृष्ण से ऐसे घड़ी में पूछा था की क्या करना मेरे लिए श्रेष्ठ है और  कल्याणकारी है।

बुधवार, 21 नवंबर 2018

नवंबर 21, 2018

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत १-३(अध्याय -2)

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१-तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌।
  विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः।

संजय बोले- करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा।

२-कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्‌।
  अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।
३-क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
 क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।
  श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस समय यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है,न ही स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है।
  इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को न प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जाओ।

 किसी ऐसी चीज की मोह में बंध कर, जो आपकी सफलता के राहों में बाधा प्राप्त कर रहा हो, और अपने कर्तव्य से मुकर जाना यह  एक नपुंसकता का ही तो लक्षण है।

रविवार, 18 नवंबर 2018

नवंबर 18, 2018

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत २६-४७(अध्याय -1)

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२६-तत्रापश्यत्स्थितान्‌ पार्थः पितृनथ पितामहान्‌।   आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।
  इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों , दादों-परदादों, गुरुओं , मामाओं , भाइयों , पुत्रों, पौत्रों तथा मित्रों, ससुरों और सुहृदों को भी देखा।

२७-श्वशुरान्‌ सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
    तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्‌ बन्धूनवस्थितान्‌।
  उन उपस्थित सम्पूर्ण बंधुओं को देखकर कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले। 


२८-कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत्‌।
   दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्‌
२९-सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते।
अर्जुन बोले- हे कृष्ण! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी स्वजनसमुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है और मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है।

३०-गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते।
   न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।
हाथ से गांडीव धनुष भी गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने को समर्थ भी नहीं हूँ।

३१-निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
  न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।
हे केशव! मैं लक्षणों को विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता।

३२-न काङ्‍क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
  किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा।
हे कृष्ण! मैं न विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से क्या लाभ है?

३३-येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
  त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।
हमें जिनके लिए राज्य और भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही  सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध केलिए खड़े हैं।

३४-आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
  मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा।
गुरुजन, ताऊ-चाचे, उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं।

३५-एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
  अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।
हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता हुॅ, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?

३६-निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
  पापमेवाश्रयेदस्मान्‌ हत्वैतानाततायिनः।
हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमको क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर हमें पाप ही लगेगा।

३७-तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्‌।
  स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।
अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?

३८-यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
  कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्‌।
३९-कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्‌।
   कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।
यद्यपि भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानकर हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?

४०-कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
  धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।
४१-अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
  स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः।
कुल के नाश होंने से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप बहुत फैल जाता है।
हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाते हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने से वर्णसंकर उत्पन्न होते है।

४२-संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
  पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।
४३-दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः।
  उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।
वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को भी नरक में ले जाने के लिए ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं।
इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म भी नष्ट हो जाते हैं।

४४-उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
  नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।
४५-अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्‌।
  यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।
हे जनार्दन! जिनके कुल धर्म नष्ट हो गया हो, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चितकाल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आए हैं।
 शोक! हम बुद्धिमान लोग होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को भी मारने के लिए उद्यत हो गए हैं।

४६-यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
  धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्‌।
यदि मुझ शस्त्ररहित और सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा।

४७-एवमुक्त्वार्जुनः सङ्‍ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्‌।
  विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।
संजय बोले- रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन यह कहकर, बाणसहित धनुष को भी त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः। 



अर्जुन जब दोनों सेनाओं के बीच अपने रथ को खड़ा करके देखा तो पाया के जिनसे वह युद्ध करने वाला है वह सब उसके अपने हैं और अपनो से लड़ने के बारे में सोच कर अर्जुन के मन दुर्बल और अंग शिथिल पढ़ने लगे। अर्जुन के लिए वह एक नकारात्मक घड़ी थी क्योंकि युद्ध को न करने की जितने कारण थे वह सब कारण उसके मन में आ रहे थे।

   किसी भी काम को करने के लिए अगर एक बार ठान लिए तो फिर उस काम को न करने के कारणों के बारे में नहीं सोचना चाहिए। उस काम को कैसे पूरा किया जाए इस बारे में सोचना चाहिए। काम को क्यों नहीं करना चाहिए यह सोचना एक नकारात्मक सोच होता है। सकारात्मक सोच वाले हमेशा यह सोचते के काम को कैसे सही ढंग से पूरा किया जाए।

शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

नवंबर 16, 2018

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत २०-२५(अध्याय -1)

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२०-अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्‌ कपिध्वजः।
     प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।

२१-हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
     सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।


हे राजन्‌! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने, मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-संबंधियों को देखकर, उस समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा- हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए।

२२-यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्‌।
    कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे।

और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख न लूँ कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिए।

२३-योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
    धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।

दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आए हैं, इन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा।



२४-एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
   सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्‌।

२५-भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्‌।

    उवाच पार्थ पश्यैतान्‌ समवेतान्‌ कुरूनिति।

संजय बोले- हे धृतराष्ट्र! अर्जुन द्वारा कहे अनुसार महाराज श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा कर इस प्रकार कहा कि हे पार्थ! युद्ध के लिए जुटे हुए इन कौरवों को देख।

   दोनो सेनाओं की निरीक्षण करने के लिए अर्जुन ने अपने रथ को दोनों सेनाओं की बीच में लेकर खड़ा किया ताकि दोनों सेना का निरीक्षण कर सके। वहां से वह देखना चाहता था कि  मुझे किस-किस से लड़ना है और कैसे लड़ना है। 

   किसी भी काम को सही ढंग से करने के लिए उसीकी गहराई में जाना चाहिए तभी हम समझ सकते हैं हमको क्या करना है और कैसे करना है तभी हम अपने काम को सही ढंग से कर सकते हैं और अपने काम में सफल हो सकते हैं।


   

सोमवार, 12 नवंबर 2018

नवंबर 12, 2018

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत १२-१९(अध्याय -1)

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१२- तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
       सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान्‌।


कौरवों में वृद्ध और प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया।


१३- ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
      सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्‌।

इसके पश्चात शंख और नगाड़े तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका वह शब्द भी बड़ा भयंकर हुआ।

१४- ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
     माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः।

इसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाए।

१५- पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः।
      पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः।

श्रीकृष्ण महाराज ने पाञ्चजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया।

१६- अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
      नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।

कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाए।

१७- काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
      धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः॥
श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, 

१८- द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
      सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक्‌।

राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु- इन सभी ने, हे राजन्‌! सब ओर से अलग-अलग शंख बजाए।

१९- स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्‌।
     नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्‌।

और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हुए धार्तराष्ट्रों के अर्थात आपके पक्षवालों के हृदय विदीर्ण कर दिए।


 युद्ध शुरु होने से पहले शंख ध्वनि क्यों बजाते थे,
खुद को प्रेरित(motivat) करने के लिए।
हर काम को शुरू करने से पहले खुद को motivat करना चाहिए ।
हम क्या करें, संख तो नहीं बजाएंगे लेकिन हमारे जो लक्ष्य है  उसे शब्दो में बयान करें, जोर जोर से बोलें खुद को और आसपास के वातावरण को सकारात्मक उर्जा से भर दें ।

रविवार, 11 नवंबर 2018

नवंबर 11, 2018

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत ११(अध्याय -1)

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११- अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
      भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि|

इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें|

 सभी और से भीष्म की रक्षा करने के लिए आदेश देता है दुर्योधन,  क्योंकि वह जानता है  के जीतने के लिए क्या जरूरी है।

 हम अपनी जीत के लिए किस की रक्षा करते हैं क्या  है हमारी ताकत।
  उसकी रक्षा कैसे करते हैं और उसे कैसे इस्तेमाल करते हैं।

शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

नवंबर 09, 2018

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत ७-१०(अध्याय -1)

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७-अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते|


हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिए। आपकी जानकारी के लिए मेरी सेना के जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ|

८-भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च|

आप-द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा|

९-अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः|

और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और सब-के-सब युद्ध में चतुर हैं|

१०-अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्‌।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्‌|

भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है|

 यह थी  दुर्योधन की तैयारियां। 
 क्या हम अपने जीवन की लड़ाई  केलिए  इतनी तैयारी करते हैं।
 क्या है हमारी लड़ाई और क्या है हमारी तैयारी  इस चीज को जानना और समझना जरूरी है अगर जिंदगी की लड़ाई जीतना  है तो  हर तरह की तैयारी करनी चाहिए।
   

सोमवार, 5 नवंबर 2018

नवंबर 05, 2018

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत २-६(अध्याय -1)

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संजय उवाच
२-दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
   आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्‌॥


संजय बोले- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखा और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा|
(क्या  संजय के पास दूर द्रष्टि थी? क्या आपके पास है?
जी सफलता केलिए यह होना बहुत जरूरी है ।)

३-पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्‌।
   व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता॥
हे आचार्य! आपके बुद्धिमान्‌ शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए

४-अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।

५-धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्‌।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः।

६-युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्‌।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।

इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र- ये सभी महारथी हैं।
नवंबर 05, 2018

Bhagvad gita in hindi हरि ॐ तत्सत १(अध्याय -1)

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1.  धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ||

धृतराष्ट्र बोले- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?

(हर चीज की सुरुआत एक प्रश्न से होती हैं?)
क्या सफलता की भी सुरुआत एक प्रश्न से ही होना चाहिए?
हा खुद से पुछो, जीवन में क्या चाहिए और हमारे अन्दर की सकारात्मक सोच और नकारात्मक इस वक्त क्या कर रहे हैं|

 यह जिंदगी हम आत्माओं के लिए एक इम्तिहान है अपने अंदर से अपने सबसे अच्छे रूप को बाहर निकालने का, इस  इम्तिहान को पास करने का एक अहम किताब भगवत गीता है। यह संस्कृत में परमात्मा के द्वारा दिये गये है। समय के साथ संस्कृत भाषा रोजमर्रा की जिंदगी से निकल गई और यह ज्ञान मनुष्य से दूर हो गया। समय-समय पर भागवत गीता को साधारण अक्षर में अनुवाद किया गया।

 इसी कोशिश को आगे बढ़ाते हुए भागवत गीता को मैं आप लोगों के साथ अपने ब्लॉग के द्वारा पहुंचाने की कोशिश करता हूं।